लेखक से मिलिए श्रृंखला :- साहित्य की दुनिया में सक्रिय संवादधर्मिता की एक सुंदर क्रियाशील पहल है।
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By Admin
Published - 27 November 2024 95 views
वाराणस । लेखक से मिलिए’ श्रृंखला साहित्य की दुनिया में सक्रिय संवादधर्मिता की एक सुंदर क्रियाशील पहल है, जिसका समन्वयन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की एक शाखा ‘भोजपुरी अध्ययन केंद्र’ में सृजनशील ‘शोध संवाद समूह’ करता है। विगत दिनों इस श्रृंखला के तहत ‘डार्क हॉर्स’ और ‘औघड़’ जैसे धुरंधर उपन्यास के लेखक ‘नीलोत्पल मृणाल’ आए हुए थे। साहित्य की सबसे बड़ी पूँजी है उसकी संवादधर्मिता की संस्कृति और प्रतिरोध का स्वर।
आज भोजपुरी अध्ययन केंद्र के राहुल सभागार में ‘लेखक से मिलिए’ श्रृंखला के अंतर्गत समकाल के सबसे प्रगतिशील कवियों में से एक कविवर आलोचक अरुण कमल की मौजूदगी में‘भोजपुरी समाज’ विषय पर एक संवाद का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम भोजपुरी अध्ययन केंद्र के समन्वयक, हिंदी विभाग बीएचयू के आचार्य प्रो. प्रभाकर सिंह के संयोजकत्व में सम्पन्न हुआ।
भोजपुरी समाज पर अपनी बात रखते हुए, अनुभवस्यूत संस्मरणों सहित बिहार के कई क्षेत्रों की भोजपुरी के विषय में बताते हुए, भिखारी ठाकुर के नाट्य लेखन और कविता पर बात रखी। भोजपुरी कलाओं एवं जनपदीय चेतना पर काम हो रहा है लेकिन भोजपुरी का समाज मॉरीशस, त्रिनिदाद, टोबैको तक फैला हुआ है।
वैश्विक जगत में भोजपुरी का और उसके समाज का बोलबाला है। उन्होंने कहां यहाँ उपस्थित विद्यार्थी हमारे संगतिया हैं अर्थात् साथ साथ चलने वाले और साथ साथ सोचने वाले भी। भोजपुरी अध्ययन केंद्र में आने का एक कारण मेरा भोजपुर में जन्म होना भी है। मेरी मातृभाषा ‘मगही’ है और पितृभाषा भोजपुरी। कवि की मगही और भोजपुरी दोनों लोक भाषाओं पर समान पैठ है।
“ मातृभाषा की परिभाषा ही यही है जो आप ख़ुद ब ख़ुद सीख जाते है, जिसका व्याकरण आप नहीं जानते।” उन्होंने बताया कि वे अपने पिता से हमेशा मगही में संवाद किया करते थे।
16 साल की उम्र तक इनकी पढ़ाई भोजपुरी में ही हुई। ‘कुदरा’ में चार साल तक पढ़ाई की। हसन बाज़ार से हाई स्कूल की परीक्षा देकर पटना आ गए। उन्होंने बताया कि इस बाज़ार में जब जब मैं वहां पढ़ता था वहां छोटी सी लाइन होती थी, जब मन आया चढ़ जाइए जब मन चाहे उतर जाइए। वहां एक गाने का बड़ा चलन था,‘चाल चलेलू मस्तानी हो छोटी जानी’ वहाँ अचानक से हो हल्ला होने लगा ‘चला चल चला चल भिखरिया आवत बा’ लोग ऐसा बहुत प्रेम से कहते थे, लउर (सोंटा) लेके चला लोग। उस जमाने में बिना लउर लेके आदमी चलता ही नहीं था। फारसी के बड़े कवि ‘बेदल’ हुए हैं, जिन्हें ग़ालिब अपना गुरु मानते थे, बेदल का संबंध बिहार के आरा जिला से था वे भी लउर (सोंटा) लेकर चलते थे।
भिखारी ठाकुर जब आए थे बहुत बुजुर्ग हो चले थे, लोगों ने उन्हें हाथों पर टांगकर लाया था। उन्होंने ‘रमान’ का दोहा और चौपाई सुनाया था। मैंने जीवन में पहली बार किसी बड़े कवि और नाटककार को प्रत्यक्ष देखा था।‘राष्ट्र भाषा परिषद् से भिखारी ठाकुर की रचनावली प्रकाशित है। ‘गबर घिचोड़’ नाटक मेरा प्रिय नाटक है इस नाटक को पढ़ते हुए मुझे ब्रेख्त का ‘खड़िया का घेरा’याद आया था। भिखारी ठाकुर ने लिखा है कि किसी चीज़ को हासिल कर लेना प्रेम नहीं है, प्रेम वह है जो अक्षत रहे, जिससे हम प्रेम कर रहा हूं वो अक्षत रहे। ‘भिखारी से भीख’ शीर्षक लेख जो कवि अरुण कमल जी द्वारा ही लिखित है, इनकी पहली आलोचना पुस्तक में शामिल है। शेक्सपियर के नाटकों जिसमें गद्य एवं पद्य साथ साथ चलता है, पारसी थियेटर ने भी यह परम्परा अपनाई। ब्रेख्त, लोर्का के नाटकों में भी यही शैली है जिसका संबंध लोक से है जीवन के सभी तत्वों का समाहार करते हुए यह रंगमंच बनता है जिसमें गद्य, गीत, संगीत जैसे तत्व समाहित होते हैं। शेक्सपियर का थिएटर भी ताम झाम से रहित होता था स्टेज पर परदे का रिवाज़ नहीं था।
बोल के ही बताया जाता था कि दिन है या रात, बादल गरज रहे हैं या बिजली तड़क रही है या बारिश हो रही है। भिखारी ठाकुर के नाटकों में एक रोचक तथ्य यह है कि उनके अधम और ठग पात्र खड़ी बोली में बात करते हैं। उनके यहाँ खड़ी बोली इस रूप में आती है। भिखारी ठाकुर ने भोजपुरी नाट्य क्षेत्र में अद्भुत प्रयोग किए हैं। उनके यहाँ जीवन की आलोचना है। ‘बेटी बेचवा’ नाटक देखने योग्य है। जब उनके प्रसिद्ध नाटक ‘बिदेसिया’ पर फिल्म बना था मैं विक्रमगंज देखने गया था। भिखारी ठाकुर बड़ी से बड़ी बात सहज रूप में कह देते थे। जितने भी लोकनाट्य हैं उसमें गद्य और पद्य का मिश्रित रूप मिलता है। यह शैली जयशंकर प्रसाद के नाटकों में भी मिलती है। भिखारी ठाकुर मुझे शेक्सपियर, ब्रेख्त और लोर्का की परम्परा के नाटककार लगते हैं। ‘लेखन का बिरवा (बीज) तो किशोरवय में ही फूटता है। मैं जहाँ पढ़ता था वहाँ तो खड़ीबोली बोलने का सवाल ही पैदा नहीं होता था, गणित जैसा विषय भी भोजपुरी में पढ़ाया जाता था। कोई खड़ीबोली बोलता था तो लोग कहते थे कि ‘अरे! अंग्रेजी बोलत ता’ मैंने अपनी पहली कविता भोजपुरी में लिखी। भोजपुरी हमेशा साथ रही क्योंकि भोजपुरी के कई शब्दों का अन्य भाषा में पर्याय उपस्थित ही नहीं है, उसके कई शब्दों का कोई सप्लीमेंट नहीं है। ‘बिरत’ शब्द रात के दो बजे के लिए प्रयोग होने वाला शब्द है जबकि हिंदी में रात्रि के दो बजे के लिए कोई शब्द उपलब्ध नहीं है। कवि केदारनाथ सिंह जी ने निराला से मुलाकात का संस्मरण सुनाया था। केदार जी त्रिलोचन जी के साथ निराला से मिलने पहुँचे थे। निराला ने वह कविता पढ़ रखी थी जिसमें ‘अरघान’ शब्द आता है। उन्होंने कविद्वय से इस शब्द के विषय में पूछा; बाद में चलकर त्रिलोचन ने अपने काव्य संग्रह का नाम ‘अरघान’ रखा। भोजपुरी भाषा ने बहुत से हिंदी भाषा-भाषी कवियों को शब्द संपदा के मामले में समृद्ध किया। प्रसाद और प्रेमचंद भोजपुरी भाषा भाषी थे, त्रिलोचन अवधी भाषी, नागार्जुन मैथिली भाषी। रघुबीर सहाय और श्रीकांत के यहाँ अवधी के बहुत से शब्द हैं। यहाँ के विकसित उर्दू का संबंध कभी लोक से नहीं रहा लेकिन लोक से यह सम्बन्ध हिंदी ने सहज प्राप्त किया। उर्दू में बाद के निदा फ़ाज़ली जैसे कवियों ने इस ओर ध्यान दिया था। हमारे यहाँ प्रचलित मुहावरा है, ‘ आरा जिला घर बा त कउन बात के डर बा।
भोजपुर क्षेत्र ने आजादी के लड़ाई में भी बहुत संघर्ष किया। ‘छपरा की भोजपुरी को राहुल जी ने ‘मल्लिका’ कहा था। भभुआ में ‘एक’ शब्द के लिए ‘एगुड़े’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। दरअसल भोजपुरी भी कई तरह की है; आरा जिला की अलग, भागलपुर, मुंगेर, बलिया की अलग। इधर लिट्टी बनता है हमारे यहाँ लिट्टी पटकाइल कहते हैं। लिट्टी को गमछा में लपेटकर पटकते थे ताकि उसपर लगी राख झड़ जाए। उन्होंने बताया कि भोजपुर में ‘गमछा’ को ‘गमसा’ कहा जाता है।
हमारे संवादधर्मी श्रोताओं ने कई प्रश्न भी किए कि भोजपुरी में इतना समृद्ध साहित्यभंडार होने के बावजूद संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे शामिल क्यों नहीं किया जा रहा। सरस्वती पत्रिका में छपी ‘हीरा डोम की कविता’. सहित उनके व्यक्तित्व एवं स्थान पर भी प्रकाश डाला गया। अरुण जी ने बताया कि हीराडोम आरा के भंगी समाज से ताल्लुकात रखते थे। इस कविता की भाषा वही है जो पटना सिटी के भंगी समाज में रहने वाले लोग बोलते हैं।
प्रतिवेदन: -कु. रोशनी (धीरा) शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।
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